Kajol Maa Review – फिल्म ‘माँ’ में काजोल एक बार फिर मां की भूमिका में दिखाई देती हैं, जहां वे अपनी बेटी को बचाने के लिए एक देवी में परिवर्तित होती हैं। निर्देशक विशाल फुरिया ने अपनी पिछली फिल्म ‘छोरी’ की तर्ज पर यहां भी “मां बनाम राक्षस” का टेम्पलेट चुना है, लेकिन इस बार यह फॉर्मूला ज्यादा असरदार साबित नहीं होता।

फिल्म समीक्षा: ‘माँ’ —डर नहीं, सिर्फ़ ड्रामा – पुरानी कहानी, नया लुक
Kajol Maa Review –‘माँ’ में काजोल अंबिका की भूमिका निभा रही हैं, जो एक सामान्य महिला है लेकिन हालातों के चलते एक शक्तिशाली रक्षक का रूप ले लेती है। कहानी पश्चिम बंगाल के चंद्र नगर गांव की है, जहां अंबिका अपने पति शुवंकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) और बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के साथ एक रहस्यमयी अभिशाप का सामना करती है। यह अभिशाप उनकी बेटी के जीवन को खतरे में डाल देता है।
कहानी की कमजोरियां
Kajol Maa Review -शुवंकर अपने गांव लौटने से डरता है, क्योंकि वहां जवान लड़कियों की अजीब परिस्थितियों में मौत हो जाती है। जब उसके पिता की मृत्यु होती है, तो वह गांव लौटने को मजबूर होता है और वहीं से कहानी में रहस्य, डर और देवी की शक्ति जुड़ते हैं। पर कहानी की प्रस्तुति इतनी सतही है कि डर महसूस होने की बजाय बोरियत हो जाती है।
राक्षस रक्तबीज, जिसकी हर गिरती खून की बूंद से नया रूप पैदा होता है, अब हिंदी फिल्मों में इतना इस्तेमाल हो चुका है कि उसका असर फीका पड़ चुका है। वहीं, देवी दुर्गा और पौराणिकता को कहानी में जोड़ने की कोशिश की गई है, लेकिन उसे गहराई नहीं दी गई।
अभिनय और किरदारों की बात
Kajol Maa Review –काजोल ने पहले भी ‘हेलिकॉप्टर ईला’ और ‘सलाम वेंकी’ जैसी फिल्मों में मां की भूमिका निभाई है, और यहां भी वे सशक्त नजर आती हैं। लेकिन इस बार उन्हें जिस कहानी और संवादों का सहारा मिला है, वह उनके प्रदर्शन की ऊंचाई को छू नहीं पाता।
रॉनित रॉय गाँव के मुखिया की भूमिका में हैं और गुप्त रहस्य को छुपाए हुए हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी कहानी को ज्यादा ऊंचाई नहीं दे पाती। खेरिन शर्मा, जो काजोल की बेटी बनी हैं, उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव स्क्रीन पर नहीं झलकता, जिससे मां-बेटी का संबंध कमजोर लगता है।
तकनीकी पक्ष और निर्देशन
Kajol Maa Review –फिल्म में CGI का प्रयोग किया गया है, खासकर एक दृश्य में जब अंबिका और श्वेता कार में भाग रही होती हैं और राक्षसी लड़कियाँ उनका पीछा कर रही होती हैं। यह एकमात्र दृश्य है जो रोमांच पैदा करता है। इसके अलावा फिल्म में बोरिंग संवाद, कृत्रिम बंगाली लहजा, और सपोर्टिंग एक्टर्स की अतिनाटकीयता अनुभव को कमज़ोर कर देती है।
फिल्म में कई सामाजिक मुद्दों को छूने की कोशिश हुई है, जैसे किशोरी से मासिक धर्म की बात करना, लेकिन ये बातें जबरन जोड़ी गई लगती हैं। लेखन में दम नहीं है और यही कारण है कि फिल्म भावनात्मक रूप से कनेक्ट नहीं कर पाती।
निष्कर्ष
‘माँ’ एक पौराणिक और डरावनी कहानी बनने की कोशिश करती है, लेकिन कहीं न कहीं यह दर्शकों को वही घिसी-पिटी कहानी का अनुभव देती है। काजोल के अभिनय में दम है, पर कमजोर स्क्रिप्ट और भावहीन निर्देशन इसकी आत्मा को खो देता है। शायद नवरात्रि जैसे त्योहार के समय रिलीज़ होने पर फिल्म को ज्यादा ऊर्जा मिलती, लेकिन फिलहाल यह एक थकी हुई कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
फिल्म इस समय सिनेमाघरों में चल रही है।