Kamal Kannad Vivad : अभिनेता कमल हासन द्वारा दिए गए एक बयान ने हाल ही में तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक नया भाषाई विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि “कन्नड़ भाषा तमिल से उत्पन्न हुई है” — इस वक्तव्य ने जहां तमिल भाषिक गर्व की अभिव्यक्ति की तरह देखा गया, वहीं कन्नड़ भाषियों के एक बड़े वर्ग ने इसे अपमानजनक माना।

कमल-कन्नड़ विवाद की परतें: भाषा, पहचान और अभिव्यक्ति की आज़ादी की कसौटी पर
लेकिन यह विचार कोई नया नहीं है। दो शताब्दियों से तमिल विमर्श में यह मत मौजूद रहा है कि तमिल ही सभी द्रविड़ भाषाओं की जननी है। प्रसिद्ध भाषाविद् रॉबर्ट कैल्डवेल सहित कई विशेषज्ञों ने ‘प्रोटो-द्रविड़’ नामक एक साझा मूल भाषा की परिकल्पना की थी, जिससे तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी भाषाएं निकलीं। परंतु तमिल राष्ट्रवादियों ने हमेशा इस विचार का विरोध किया। उनका दावा है कि तमिल ही मूल भाषा है और बाकी सब उसी की शाखाएं हैं।
राजनीति और पहचान का मेल
Kamal Kannad Vivad आज के भारत में जब हर क्षेत्रीय समुदाय अपनी भाषा को पहचान का केंद्र मानता है, तब ऐसी कोई भी टिप्पणी जो किसी दूसरी भाषा को कमतर दिखाए, संवेदनशीलता को ठेस पहुँचा सकती है। कमल हासन का उद्देश्य भले ही एकता का संदेश देना रहा हो, लेकिन इस प्रकार का भाषाई श्रेष्ठता का विचार सांस्कृतिक सामंजस्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
तमिल साहित्य की समृद्ध परंपरा, उसकी प्राचीनता और निरंतरता की चर्चा स्वयं में गौरव का विषय है। तमिल को महान साबित करने के लिए अन्य भाषाओं को उसके अधीन दिखाना आवश्यक नहीं है। अगर यह संपन्नता और गहराई वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत की जाए, तो तमिल को उसी प्रकार की पहचान मिल सकती है जैसी गीताांजलि श्री (हिंदी) या भानु मुश्ताक (कन्नड़) को इंटरनेशनल बुकर सम्मान से मिली।
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क्या कमल हासन का इरादा अपमानित करना था?
Kamal Kannad Vivad कमल हासन का वक्तव्य एक मंच पर कन्नड़ अभिनेता शिवराजकुमार की उपस्थिति में आया, जहाँ वे दोनों भाषाओं के पारस्परिक संबंध को ‘भाई-बहन’ की तरह दर्शाने की कोशिश कर रहे थे। यह कहना कि “हम एक परिवार हैं” शायद उनके दिल से निकली भावना थी, लेकिन तमिल राष्ट्रवादी धारणा — कि तमिल सबसे पुरानी भाषा है — इस वक्तव्य में झलक गई।
यह ज़रूरी है कि किसी की मंशा को समझे बिना केवल शब्दों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय, पूरे संदर्भ को समझा जाए। अगर किसी को आपत्ति है, तो उसका लोकतांत्रिक उत्तर संवाद या लेख के माध्यम से दिया जा सकता है, न कि धमकी और हिंसा के ज़रिए।
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अदालत की भूमिका और लोकतंत्र की परीक्षा
Kamal Kannad Vivad ‘ठग लाइफ’ नामक फिल्म की रिलीज़ को लेकर जब मामला कर्नाटक की अदालत पहुँचा, तो न्यायालय ने कमल हासन से माफ़ी की उम्मीद जताई। सवाल यह है कि क्या अदालत को ऐसे मामलों को सांस्कृतिक या भावनात्मक दबाव में देखना चाहिए, या स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में?
कानून-व्यवस्था की स्थिति को पुलिस संभाल सकती है, लेकिन अदालत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए। किसी भी लोकतंत्र में न्यायपालिका आख़िरी संस्था होती है जो व्यक्ति की गरिमा और उसकी राय की सुरक्षा करती है। अदालत को यह स्पष्ट कहना चाहिए था कि यह विवाद फिल्म की रिलीज से संबंधित नहीं है, और कमल हासन को अपनी राय रखने का अधिकार है।
कमल हासन ने माफ़ी नहीं मांगी। उन्होंने कहा, “मेरी बात ग़लत नहीं थी, बस उसे ग़लत समझा गया।” यह वह साहस है जो फ़िल्मी दुनिया में कम ही देखने को मिलता है, जहाँ अक्सर विवाद से बचने के लिए लोग समझौते कर लेते हैं।
भाषाई विवाद या सामाजिक चेतना का क्षण?
Kamal Kannad Vivad ‘ठग लाइफ’ को तमिलनाडु में ज़ोरदार स्वागत मिला, लेकिन कर्नाटक में इसकी रिलीज टल गई। यह विवाद केवल एक फिल्म या एक बयान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इस बात की मिसाल है कि आज के भारत में भाषा और पहचान कितनी संवेदनशील विषय बन चुके हैं।
कमल हासन की टिप्पणी पर लोकतांत्रिक असहमति जताना एक अधिकार है, लेकिन उस पर हिंसा या जान से मारने की धमकी देना अपराध है। यह आवश्यक है कि ऐसे मामलों में लोकतांत्रिक संस्थाएं संविधान के मूल मूल्यों — अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गरिमा और समानता — की रक्षा करें।
यह मुद्दा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भाषा के नाम पर बँटते जा रहे हैं, या एक समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं? और क्या अब समय आ गया है कि हम अपनी भाषाओं की समृद्धि को दूसरों की भाषा को नीचा दिखाए बिना दुनिया के सामने प्रस्तुत करें? शायद यही सबसे बड़ा उत्तर होगा किसी भी भाषाई विवाद का।
Source: The Hindu